नोक झोंक

“मना किया था ना मैंने,
तुम्हे ऐसा करने को,
फिर भी तुमने अपने ही चलाई,
मजा अता है ना तुम्हे अपनी चलानेको।”

“पता नहीं क्यों ऐसा बर्ताव करती हो तुम,
क्या मिलता है तुम्हे,
क्यों हमेशा अलग मतलब निकालती हो,
मेरी बात समझती नहीं क्या तुम्हे?”

“कभी तो मेरा साथ दिया करो,
सिर्फ साथ रेहेने से कुछ नहीं होता,
ये सब ऐसा नहीं होता,
बना-बनाया काम बिगड़ नहीं जाता।”

“लेकिन क्यों दोगे ना तुम मेरा साथ,
तुम्हारे मन में तो ये करना था ही नहीं,
तुम तो हमेशा वो ही करते हो,
जो तुम्हे लगता है सही।”

“कैसे मुंह फुलाके बैठी है,
जैसे गलती मेरी ही हो,
ये रोना-धोना हमेशाका ही है,
हर बात पे क्या रूठती हो?”

“अब काम जब बिगड़ा है,
तो उसे सही नहीं करना है क्या,
ऐसे ही बैठे रेहेके,
यूंही वक्त जाया करना है क्या!”

“अगर मै चुप हूं,
तो तुम भी चुप रहोगे,
मुझे समझ तो तुम सकते नहीं,
और समझा भी नहीं पाओगे।”

“तुम्हे सिर्फ मेरी खामोशी दिखेगी,
क्योंकि वहीं तो में जताती हूं,
उसकी वजह जानना चाहोगे तुम,
ऐसी उम्मीद भी मै क्या करू!”

“अब पता नहीं ये कब तक चलेगा,
कब तक ऐसे ही बैठना है,
मै तो सामनेसे नहीं बोलूंगा,
क्योंकि गलती मेरी नहीं है।”

“भली बाती समझता हूं मै,
तुम चाहती हो मै ही बात करू,
लेकिन ये नहीं होगा इस बार,
क्योंकि तुमने किया है इसे शुरू।”

“शायद तुम राह देख रहे हो,
की मै कब बात करूंगी,
तुम कब तक ऐसे रहते हो,
ये मै भी इस बार देखूंगी।”

“गलती मेरी है,
ये मै मानती हूं,
लेकिन उसकी वजह तुम हो,
ये भी मै जानती हूं।”

“ठीक है तो फिर,
तुम्हे बात ही करनी नहीं,
मुझे भी ऐसे बैठे नहीं रेहेना,
अब तो यह ही सही।”

“एक बार उठकर चला गया,
तो वापस नहीं आऊंगा,
रोकना है तो अभी रोक लो,
मै तुम्हे जवाब जरूर दूंगा।”

“अभी क्या, तुम,
चले जानेका ही सोचोगे,
हमेशा की तरह,
इस बार भी येही करोगे।”

“कभी कभी सोचती हूं,
कितने जिद्दी हो तुम,
लेकिन किस बात पे जिद करना,
ये समझते नहीं हो तुम।”

“जानेको तो मै जा सकता हूं,
तुम तो मुझे रोकने से रही,
लेकिन मै दिखाऊंगा समझदारी,
जो तुम दिखानेसे रही।”

“मै ही कुछ करने की सोचता हूं,
तुम मुंह फूलाते बैठी रहना,
मै ही इसे सुलझाने की कोशिश करता हूं,
तुम सिर्फ देखती ही रहना।”

“ऐसे ही जुबां पे टाला लगाए रखो,
शांति बनी रहेगी,
तुमसे बेहेस करने से अच्छा,
मै कुछ तो सोच पाऊंगी।”

“अपने गुस्से के गुलाम हो तुम,
और शायद रहोगे ही हमेशा,
वक्त जाने के बाद समझते हो तुम,
लेकिन तब होती है निराशा।”

—–

इतना पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद है,
ऐसी नोक-झोक होना तो आम बात है,
लेकिन इसका अंत कुछ खास है,
क्युकी उसी में कुछ संदेश चूपा है।

—–

“अब मै काम करने आया हूं,
तो तुम भी पीछे चली आई,
अगर तुम्हे ही करना था,
तो पहिले क्यों नहीं आई?”

“बात भी बराबर है ना अब,
अगर मै ही ये करूंगा,
तो तुम्हारे हित मै,
बोलने के लिए क्या रहेगा!”

“तुमने आगे आकर,
काम शुरू किया,
पता नहीं क्या सोचकर,
तुमने ये फैसला लिया।”

“लगा नहीं था मुझे,
की कुछ ऐसा देखने मिलेगा,
वरना मैंने तो सोच ही लिया था,
की मुझे ही इसे सुलझाना पड़ेगा।”

“अब जैसे हाथ बटा रही हो,
काश पहिले ही समझ जाती,
ये ऐसा कुछ भी नहीं होता,
बल्कि तुम खिलखिला रही होती।”

“तुम्हारा कभी बुरा नहीं चाहा मैंने,
अच्छा लगा तुम्हे ऐसे देखकर,
तुम खुद ही अपना मन बिगाड़ती हो,
छोटी छोटी बातों को पकड़कर!”

“मजा आता है मुझे,
जब भी हम साथ होते है,
फिर चाहे हम कुछ भी करे,
उसका मजा ही दुगना होता है।”

“तुम्हे कभी कसीका सुनना नहीं होता,
बस अपनी ही धुन गाते हो,
इसी के कारण पता नहीं,
अपनी समझदारी कहा छोड़ आते हो।”

—–

यही तो खास बात है,
हम सब मै कुछ तो कमियां है,
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है,
की एक भी अच्छाईयाँ नहीं है।

मतभेद तो होना ही है,
मनभेद नहीं होना है,
आखिरकार हम सब इंसान ही है,
यही बात तो हमें समझनी है।

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